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कबीर के दोहे (पार्ट -2)

कबीर जी के दोहे जो पूरी जिंदगी काम आए।


पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।

कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।। 


कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।

साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।


शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।

आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।


प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय।

जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय॥


यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।

शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।


सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज ।

सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।


पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।

देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ।


ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग ।

तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।


जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप ।

जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ।


जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान ।

जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ।


जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए ।

यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ।


ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग ।

प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ।


कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन,

कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन |


बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,

हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि |


ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।


क्या भरोसे देह का, बिनस जाय क्षण माही।
सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नाही॥


साईं इतना दीजीए, जामे कुटुंब समाए
मै भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।


मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई,
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई |


कबीर कुआ एक हे,पानी भरे अनेक।
बर्तन ही में भेद है पानी सब में एक ।


बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम आधार॥




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